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Introduction of Alternator (प्रस्तावना) :-
प्रत्यावर्ती धारा AC Current उत्पन्न करने वाली मशीन को प्रत्यावर्तक कहते है। इसकी सिद्धान्ततः रचना देष्ट धारा (D.C.) जनित्र के ही समान होती है परन्तु इसमें प्रत्यावर्ती धारा प्राप्त करने के हेतु दिक्परिवर्तक (Commutator) के स्थान पर प्रत्यावर्तक में स्लिप रिंगें होती है।
Construction of Alternator (प्रत्यावर्तक की संरचना) :-
प्रत्यावर्तक के मुख्य दो भाग होते हैं : (1) स्टेटर (Stator) (2) रोटर (Rotor)
(1) Stator (स्टेटर) :
इसकी संरचना चित्र 3.1 में दर्शाई गई है। यह एक सिलिकन स्पात (Silicon Steel) या डायनमो चद्दर स्पात का बना हुआ वलयाकार (Ring shape) पटलित खाँचेदार क्रोड़, होता है। इन पटलों को वार्निश या ऑक्साइड परत द्वारा परस्पर विद्युत रोधित बनाया जाता है। विद्युत रोधित बनाने से क्रोड़ में होने वाली भंवर धारा (Eddy Current) हानियाँ कम हो जाती हैं।
स्टेटर के खाँचों में सुपर एनैमल्ड (Super enameled) ताम्र तार की कुण्डलन डाली जाती है। कुण्डलन को खाँचों में डालने से पूर्व विद्युत रोधन के रूप में खाँचो में बनी हुई अभ्रक पतरें (Buildup mica foils) और टेप (Tapes) लगाते हैं क्योंकि यह उच्च ताप और उच्च वोल्टता प्रतिबल को सहन करने में समर्थ है।
प्रत्यावर्तक का स्टेटर भी प्रेरण मोटर के स्टेटर की ही भाँति कुण्डलित होता है। स्टेटर में शीतलन प्रदान करने के लिये अक्षीय (Axial) तथा त्रिज्यांक (Radial) संवातन (Ventilating) वाहिनियाँ (Ducts) होती हैं। आर्मेचर कुण्डलन के लिये प्रायः तीन प्रकार के खाँचे (Slots) बनाये जा सकते हैं ; जैसा कि चित्र B में दर्शाया गया है :
Stator of Alternator and Types of slots |
(i) Open slots (खुले खाँचे):-
व्यवहारिक रूप में खुले खाँचों का प्रचलन अधिक है क्योंकि इनमें सरलता से फॉरमर कुण्डलित (former wound) कुण्डलन (windings) डाले और निकाले जा सकते हैं, परन्तु ये फलक्स को वायु अन्तराल में गुच्छों के रूप में वितरित करते हैं जिससे EMF में उर्मिका (Ripples) उत्पन्न होती हैं। इन्हें चित्र (a) में दर्शाया गया है।
(ii) Semi-closed slots (अर्ध खुले खांचे):-
जैसा कि चित्र (b) में दर्शाया गया है फलक्स वितरण की दृष्टि से ये खाँचे खुले खाँचों की अपेक्षा अच्छे होते हैं, परन्तु इनमें फॉरमर कुण्डलित (Former wound) कुण्डलन डालना बहुत कठिन है।
(iii) Closed slots (बन्द खाँचे):-
ये वायु अन्तराल फलस्क वितरण पर प्रभाव नहीं डालते परन्त इनसे कुण्डलन का प्रेरकत्व (Inductance) बढ़ जाता है। जैसे कि चित्र (c) में दर्शाया गया है। इनमें फॉरमर द्वारा बनी कुण्डलन डालना असम्भव है जिससे कुण्डलन करने में अधिक व्यय और कठिनाई आती है। इसके अतिरिक्त इनमें अन्तः संयोजन में भी बड़ी परेशानी आती है। इसलिये बन्द खांचों का प्रयोग प्रायः नगण्य सा होता है।
(2) Rotor (रोटर):-
रोटर दो प्रकार के होते हैं :-
- Salient type or Projecting pole type (समुन्नत या उभरे ध्रुव प्रकार )
- Cylindrical or Non-projecting pole type (बेलनाकार या असमुन्नत ध्रुव प्रकार )
(i) Salient pole type Rotor(समुन्नत या उभरे ध्रुव प्रकार) :-
इसकी संरचना चित्र 3.3 में दर्शाई गई है इस रोटर की अक्षीय लम्बाई कम परन्तु व्यास अधिक होता है। इसे उच्च चाल पर चलाने से वायु र्पण (windage) हानियाँ और शोर उत्पन्न होता है। इस प्रकार के ध्रुवों की रचना दृढ़ नहीं बनाई जा सकती जिससे वह उच्च चाल पर अपकेन्द्री बल के कारण उच्च प्रतिबल सहन कर सकें अतः इन्हें मन्द गति हेतु प्रयोग किया जाता है।
इनमें अधिक संख्या में ध्रुव पटलित बनाये जाते हैं और रोटर के पहिये के साथ उइन्हें डमरूआ चूल (Dovetail) जोड़ से जोडा जाता है। ध्रुवों के बाहर निकले भाग, क्षेत्र कुण्डलन को रोकने के लिए आधार प्रदान करते हैं। ध्रुवों के बाह्यमुख पर अवमंदक कुण्डलन (Damping winding) के लिए खांचे होते हैं। अवमन्दक कण्डलन जनित्रों में कला प्रेक्षण कम करने में और जनित्र को तुल्यकाली मोटर की तरह प्रारम्भ करने में तथा कला-प्रेक्षण को निरस्त करने में सहायक होते हैं।
(ii) Cylindrical pole/Non Salient pole type Rotor (बेलनाकार या असमुन्नत ध्रुव प्रकार):-
Non Salient Type Rotor |
इसकी रचना लगभग दिष्ट धारा मशीन के आर्मेचर जैसी होती है। रोटर की शाफ्ट और क्रोड़ को फोर्ज (Forge) करके एक खण्ड (One piece) बनाया जाता है, रोटर की बाहरी परिधि पर कुण्डलन के लिए खाँचे बने होते है। उच्च अपकेन्द्री प्रतिबल एवं ताप प्रभाव को सहने हेतु अभ्रक (mica), एस्बेस्टस तथा अन्य कठोर संरचना वाले विद्युत रोधन पदार्थों का विरोधन (Insulation) के रूप में प्रयोग किया जाता है। कुण्डलन के सिरे चुंबकीय पदार्थों की बनी हुये वलयों (Rings) द्वारा जुड़े होते है। बड़े प्रत्यावर्तकों में शीतलन के लिए अक्ष के समानान्तर वायु वाहिनियाँ होती हैं। रोटर की परिधि के 2/3 भाग पर खाँचे और, 1/3 भाग पर ध्रुव केन्द्र होते हैं।
इसकी निम्नलिखित विशेषताएं हैं।
- गत्यात्मक (Dynamic) संतुलन अच्छा होता है
- वायु घर्षण हानियाँ कम होती है।
- अवमन्दक कुण्डलन आवश्यक नहीं है।
- कम आवाज़ पर चलता है।
Working Principle (कार्य सिद्धान्त) :-
प्रत्यावर्तक दिष्ट धारा जनित्र की भाँति चुम्बकीय प्रेरण सिद्धान्त पर कार्य करता है। जब चालक और चुम्बकीय क्षेत्र में सापेक्ष वेग होता है तो चुम्बकीय बल रेखाएं कटती है और फैराडे के चुम्बकीय पेरण नियमों के अनुसार चालक में EMF उत्पन्न होता है। दिष्ट धारा जनित्र में आर्मेचर (चालक) घूर्णमान होता है और क्षेत्र स्थिर रहता है जबकि प्रत्यावर्तक में आर्मेचर या चुम्बकीय क्षेत्र कोई भी घर्णमान हो सकता है। सामान्यतः प्रत्यावर्तक में चुम्बकीय क्षेत्र को घूर्णमान और आर्मेचर को स्थिर रखा जाता है।
व्यावर्तक सदैव पृथक उत्तेजित होते हैं जबकि दिष्ट धारा जनित्र स्व अथवा पृथक उत्तेजित होते है। पवर्तक में क्षेत्र उत्तेजन के लिए 110 या 250 वोल्ट का छोटा शन्ट जनित्र जो कि प्रत्यावर्तक के ही शाफ्ट पर लगा रहता है, प्रयोग किया जाता हैं।
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